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आखिर फेयर क्यूँ नहीं होते फिल्मों के ये अवार्ड..!

आखिर फेयर क्यूँ नहीं होते फिल्मों के ये अवार्ड..!  - विनोद नागर  अभी पिछले पखवाड़े ही खा़कसार ने फिल्म अवार्ड समारोहों के बदलते ठिकानों की तफसील करते हुए इन अवार्डों की लगातार घटती विश्वसनीयता के मुद्दे को भी हौले से छुआ था। और लीजिए पंद्रह फरवरी को गुआहाटी में 65वें फिल्म फेयर अवार्ड समारोह के संपन्न होते ही एक बार फिर विवादों की काली घटाएं छा गईं। 'आर्टिकल 15' के युवा लेखक गौरव सोलंकी को फेसबुक पर पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिलने की बधाई दी ही थी, तभी गीतकार मनोज मुंतशिर का क्षोभ में भरा कड़वा ट्वीट पढ़ने को मिला।  गुड बाय अवार्ड्स..!!! शीर्षकीय इस पीड़ादायक ट्वीट में उन्होंने अपनी व्यथा जिन शब्दों में अभिव्यक्त की उसका तर्जुमा कुछ इस तरह है- "प्रिय अवार्ड्स.. यद्यपि मैंने भरसक प्रयास किया, पर 'तू कहती थी तेरा चाँद हूँ मैं और चाँद हमेशा रहता है..' से बेहतर पंक्ति जीवन में लिख न पाया। लेकिन आप (अवार्ड्स) उन हृदयविदारक शब्दों का सम्मान करने में विफल रहे हैं, जिन्होंने करोड़ों भारतीयों को रूलाकर अपनी मातृभूमि की देखभाल के प्रति जागृत किया है। अब यदि इसके बाद भी मैं आपकी (अ

अटपटे किस्से को चटपटी कहानी में बदलने की फूहड़ कोशिश ‘दे दे प्यार दे’ / 19 मई 2019

अटपटे किस्से को चटपटी कहानी में बदलने की फूहड़ कोशिश ‘दे दे प्यार दे’ •विनोद नागर इस शुक्रवार प्रदर्शित अजय देवगण की रोमकॉम (रोमांटिक कॉमेडी फिल्म) ‘दे दे प्यार दे’ भी फिल्म के प्रचार से जगी उम्मीद की कसौटी पर खरी उतरने के बजाय निराश ही करती है। फिल्म का टाइटल अमिताभ की प्रकाश मेहरा निर्देशित आखिरी हिट फिल्म ‘शराबी’ के मशहूर गीत की याद दिलाता है। यह अलग बात है कि इस फूहड़ कॉमेडी फिल्म का उस अलबेले गीत के निहितार्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। ठीक वैसे ही जिस तरह अब्बास मस्तान ने शम्मी कपूर  और रफी साहब के मस्ती भरे गीत “किस को प्यार करूं” को भुनाते हुए बॉलीवुड में मंचीय मसखरे कपिल शर्मा के पैर जमाने की जुगत भिड़ाई थी। बहरहाल ‘दे दे प्यार दे’ भी मात्र एक अटपटे किस्से को चटपटी कहानी में बदलने की फूहड़ कोशिश बनकर रह गई। प्यार का पंचनामा और सोनू के टीटू की स्वीटी जैसी फिल्मों के लेखक निर्देशक लव रंजन को निर्माता के बतौर उनकी यह ताजा पेशकश 'दे दे प्यार दे' दाता के बजाय याचक की निचली पायदान पर धकेलती है। लव रंजन ने अपने सहायक रहे अकीव अली को पहली बार स्वतंत्र रूप से निर्देशन का द

ढूंढें से भी न मिले सच्चे स्टूडेंट ‘स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर-2’ में / 12 मई 2019

सिने विमर्श        ढूंढें से भी न मिले सच्चे स्टूडेंट ‘स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर-2’ में     ·         विनोद नागर सत्तर के दशक की कई हिन्दी फिल्मों में छात्र जीवन का वास्तविक चित्रण उभरकर सामने आया था. मेरे अपने, इम्तिहान, आन्दोलन, जवानी दीवानी, अंखियों के झरोखों से, बुलंदी जैसी फिल्मों से    आज भी लोग अपने छात्र जीवन को कनेक्ट करते हैं. कालान्तर में जो जीता वही सिकंदर, कुछ कुछ होता है, दिल चाहता है, रंग दे बसंती, युवा, थ्री इडियट्स, मैं हूँ ना, रॉक ऑन, वेक अप सिड, फुकरे, फ़ालतू, यारियां, इश्क विश्क सरीखी फिल्मों ने सिनेमा के परदे पर स्टूडेंट लाइफ की बदलती तस्वीर पेश की. इनमे से कुछ फिल्मों को उनके बेहतर कथानक और सामाजिक सरोकारों से सीधे जुड़ाव के चलते व्यापक सराहना भी मिली और अवार्ड भी.                 2012 में करण जौहर ने अपने बैनर धर्मा के लिये पहली बार ऐसी फिल्म निर्देशित की जिसमे उनके प्रिय शाहरुख़ खान नहीं थे. स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर ने वरुण धवन, आलिया भट्ट और सिद्धार्थ मल्होत्रा जैसे नवोदित कलाकारों के कैरियर को सीधे सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. राधा जैसा   लोकप्रिय गीत युवाओं को

आतंकी साजिश टटोलती 'ब्लैंक' और परीक्षा को ठेंगा दिखाते 'सेटर्स'/ 5 मई 2019

आतंकी साज़िश टटोलती ‘ब्लैंक’ और परीक्षा को ठेंगा दिखाते ‘सेटर्स’ • विनोद नागर भारत में आतंकवाद से जुड़ी घटनाएँ भले ही न थमी हों पर पर इस विषय से जुड़ी फिल्में अब अपना आकर्षण खो चुकी हैं. इस विषय पर दर्शक बहुतेरी फ़िल्में देख चुके हैं. बॉलीवुड में अधिकाँश निर्माता निर्देशक नये विषयों का जोखिम उठाने के बजाय लीक पर चलने में ही अपनी भलाई समझते हैं. मनोरंजन के महासागर में हॉलीवुड के उच्च दबाव क्षेत्र में उठे तूफ़ान ‘एवेंजर्स एंडगेम’ पर बंगाल की खाड़ी में उठा चक्रवात ‘फ़नी’ ज्यादा भारी नहीं पड़ा. शुक्र है कि पिछले हफ्ते बॉक्स ऑफिस पर आराम से पसरी ‘एवेंजर्स एंडगेम’ ने इस शुक्रवार सनी देओल की ‘ब्लैंक’ और श्रेयस तलपड़े की ‘सेटर्स’ को रिलीज़ होने के लिये रुपहले परदे पर जगह दी. वर्ना आँधी तूफ़ान में तो सड़क किनारे रेहड़ी लगाने वाले भी अपने टीन टप्पर समेट लेते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने नरेन्द्र मोदी की बायोपिक को तो रिलीज़ नहीं होने दिया पर सनी देओल की नई फिल्म के प्रदर्शन से उसे कोई गुरेज नहीं है. ये वही ढाई किलो का हाथ है जो   लोकसभा चुनाव का आधा हिस्सा गुजरने के बाद एकाएक भाजपा के हाथ लग

अनोखे सिनेमाई ब्रह्माण्ड के विस्मय का पटाक्षेप ‘एवेंजर्स एंडगेम’ / 28 अप्रैल 2019

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सिने विमर्श  अनोखे सिनेमाई ब्रह्माण्ड के विस्मय का पटाक्षेप ‘एवेंजर्स एंडगेम’   ·   विनोद नागर भारत में प्रारंभ से ही एक बड़ा दर्शक वर्ग विदेशी फिल्मों का दीवाना रहा है. चार्ली चैपलिन, लारेल हार्डी सहित कार्टून फिल्मों के किरदार हों या रक्त पिपासु ड्रेकुला का डरावना चरित्र, जासूस जेम्स बांड के   जांबाज़ कारनामे हों अथवा सुपर मेन / स्पाइडर मेन के हैरतंगेज करिश्मे हर दौर में दर्शकों की भीड़ खींचने में सफल रहे हैं. हॉलीवुड के वार्नर ब्रदर्स, कोलम्बिया, पेरामाउंट, युनिवर्सल, वाल्ट डिज्नी, ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स सरीखे विशाल स्टूडियो विश्व सिनेमा के बड़े ब्रांड रहे हैं और सिने जगत में इनकी जबरदस्त धाक रही है. हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों में सबसे बड़ा फर्क बजट और गुणवत्ता के स्तर पर ही नहीं बल्कि कंटेंट को लेकर भी रहा है. पिछली सदी में मार्वल अमेरिका में कॉमिक्स पुस्तकों का सर्वाधिक लोकप्रिय ब्रांड था. कालांतर में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पदार्पण व डिज्नी की अनुषांगिक कंपनी की बदौलत उसने मनोरंजन के आकाश में ऊँची छलांग लगाई और मार्वेल सिनेमेटिक यूनिवर्स नामक पूरा का पूरा काल

‘कलंक’ लगाना आसान, धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन / 21 अप्रैल 2019

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सिने विमर्श  ‘कलंक’ लगाना आसान, धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन       ·    विनोद नागर (फिल्म समीक्षक) कलंक का अभिप्राय उस कालिख से है जिसे लगाना आसान; धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन होता है. कमोबेश यही हाल इस सप्ताह प्रदर्शित ‘कलंक’ का रहा. निर्माता करण जौहर के लिये भले ही इसे बनाना आसान और अभिषेक वर्मन के लिये निर्देशित करना कठिन रहा हो मगर दर्शकों के लिये इस ‘कलंक’ को झेलना किसी त्रासदी से कम नहीं. चटख लाल रंग के कैनवास पर डेढ़ अरब रु. की लागत से इस फिल्म को जिस भव्य तरीके से संजय लीला भंसाली की शैली में फिल्माया गया उसके उत्तेजक प्रचार से दर्शक पहले ही बौराए हुए थे. कहा गया कि बीस करोड़ रु. तो फिल्मसिटी में सेट्स बनाने में ही खर्च हो गए.  लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों से बढ़े राजनैतिक तापमान के बीच करण जौहर ने बड़ी चतुराई से अपनी फिल्म शुक्रवार के बजाय बुधवार को ही चार हजार स्क्रीन पर रिलीज़ करने का व्यावसायिक हथकंडा अपनाया ताकि सप्ताहांत के साथ पड़ने वाली दो छुट्टियों का लाभ मिल सके. लेकिन ‘कुछ कुछ होता है’, ‘कभी ख़ुशी कभी गम’ और ‘कल हो न हो’ के अहसास और आत्म विश्वास के

लोकतंत्र में सच जानने का अधिकार तलाशती ‘द ताशकंद फाइल्स’ / 14 अप्रैल 2019

 सिने विमर्श   लोकतंत्र में सच जानने का अधिकार तलाशती ‘द ताशकंद फाइल्स’      ·    विनोद नागर (फिल्म समीक्षक)  शीर्ष राजनेताओं की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के मामले आये दिन लोगों में कौतुहल जगाते रहते हैं. भारत में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और लालबहादुर शास्त्री से लेकर श्यामाप्रसाद मुख़र्जी और संजय गाँधी तक अनेक राज नेताओं की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मृत्यु से उठे अनुत्तरित सवाल लोक जिज्ञासा   का विषय बनते रहे हैं. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की गुमनाम मौत भले ही विवादों में घिरी हो पर नेहरूजी के अंतिम संस्कार की तस्वीरों में नेताजी के हमशक्ल जैसे दिखते शख्स की उपस्थिति को रेखांकित करती टिप्पणियाँ सोशल मीडिया पर आज भी खूब वायरल होती हैं. नेहरूजी के निधन के उन्नीस महीने बाद उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की अचानक मौत की खबर ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. वे 1965 के भारत पाक युद्ध के बाद सोवियत संघ की पहल पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब से शांति वार्ता के लिये ताशकंद गए थे. ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के उपरांत देर रात 11 जनवरी