हिन्दुस्तानी सिनेमा का शानदार शतक / 4 मई 2012

हिन्दुस्तानी सिनेमा का शानदार शतक
* विनोद नागर (फिल्म समीक्षक)
भारत में सिनेमा के सौ साल पूरे होने के सिलसिले में एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में जाने-माने फिल्म समीक्षकों/फिल्मकारों के साथ लाइव परिचर्चा में एक वरिष्ठ समीक्षक की उस टिपण्णी ने मन को झकझोर दिया जिसमे हालिया बहुचर्चित फिल्म 'विकी डोनर को भारतीय सिनेमा का भविष्य बताया गया..! क्या वाकई विकी डोनर, कहानी या पानसिंह तोमर जैसी किफायती फिल्में साधन संपन्न भारतीय सिनेमा के आने वाले कल की दिशा निर्धारित करेंगी ?...या दर्शकों की नई पीढ़ी के बदलते रुझान की आहट है ये...? बहरहाल विकी डोनर का एक डायलाग यहाँ बड़ा मौजू लग रहा है...नौटंकी तो हम इंडियन्स के जींस में है...”| बिलकुल ठीक फ़रमाया..तभी तो सौ बरस से सिनेमा हमारे जीवन में मनोरंजन का रस घोलने वाले सरल साधन के रूप में रचा-बसा हुआ है पीढ़ी दर पीढ़ी...|
किशोरावस्था में सिनेमा के प्रति अगाध लगाव ने ही नाचीज़ को सत्तर के दशक में उज्जैन में दैनिक अवंतिका से फिल्म समीक्षक के रूप में एक पहचान दिलाई जो ब-रास्ता नईदुनिया,माधुरी, मायापुरी,रविवार,सरिता-मुक्ता आदि में प्रकाशित ढेरों लेखों की बदौलत कालांतर में भोपाल में (तब इब्राहिमपुरा से छपनेवाले) दैनिक भास्कर के संपादक श्री महेश श्रीवास्तव तक ले गयी| उन्होंने पहली मुलाकात में ही फिल्म पृष्ठ का दायित्व सौंप दिया| करीब डेढ़-दो वर्ष तक बड़े मनोयोग से मैंने यह जिम्मदारी निभाई| तीस साल पहले झीलों की नगरी के इसी इलाके में जहांनुमा पैलेस में ऋषिकेश मुखर्जी और अख्तर सईद खां के घर किये मजरूह सुल्तानपुरी के इंटरव्यू अक्सर मुझे इन दिनों श्यामला हिल्स पर हुए यादों की बारात में ले जाते है | हमीदिया रोड के भोपाल व लक्ष्मी टॉकीज से चलकर कृष्णा, राधा, अल्पना, भारत, सरगम, लिली, रंगमहल, संगीत, ज्योति, सरगम सिनेमाघरों में देखी तमाम अच्छी-बुरी फिल्मे अब भी यादों के धुंधलके में घुमडती हैं
भारत में सिनेमा का एक सदी का सफर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से चलकर एक्सप्रेस हायवे तक पहुँचने जैसा है | उस दिन नईदिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह के दूरदर्शन पर सीधे प्रसारण के चलते भोपाल केन्द्र से हमारा शाम सात बजे का रीजनल न्यूज़ बुलेटिन टेलीकास्ट होने की सम्भावना नही थी | न्यूज़ रूम में टीवी सेट पर मोनिटरिंग के दौरान दादासाहब फाल्के की राजा हरिश्चंद्र के रशेज़ देखते हुए बार-बार यह सवाल कौंधता रहा- सौ सालों में कहाँ से कहाँ आ गया हिंदुस्तान का सिनेमा  ..! इसका फ़ौरी जवाब मिला द डर्टी पिक्चर की बिंदास नायिका को मिले श्रेष्ठ अभिनेत्री के नेशनल अवार्ड के साथ...जिसने ऊ..ला..ला गर्ल की आधी हकीकत-आधा फ़साना को भारतीय फ़िल्म उद्योग (बिग बी के आग्रह पर बॉलीवुड नहीं कहूँगा) के तमाम अवार्ड्स की कसौटियों पर खरा साबित कर दिया | डर्टी से प्रफुल्लित बालन बाला ने राष्ट्रीय पुरस्कार के प्रति अपनी गंभीर कृतज्ञता का इज़हार भी हाथों-हाथ कर डाला, केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के समग्र स्वछता अभियान की ब्रांड एम्बेसडर बनने की पेशकश स्वीकार कर |
सचमुच भारत का  फिल्मोद्योग सिर्फ़ इसीलिए विश्व में अग्रणी नहीं है कि दुनिया में हर साल सबसे ज़्यादा फ़िल्में हमारे यहाँ बनती हैं, बल्कि इसलिए भी कि बड़े-छोटे, जात-पांत, इलाकाई-भाषाई सीमाओं से परे; केवल सच्ची प्रतिभा, पूरी शिद्दत मेहनत और काबिलियत से ऊंचे ख्वाबों को पूरा करने के लिए मिले अवसरों को कामयाबी में बदलने का जुनून रखने वालों की कर्मभूमि है वह विद्या बालन के रूप में बीते सौ सालों में शायद यह पहला मौका है जब किसी कलाकार की प्रतिभा को फिल्मफेयर से लेकर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तक हर अवार्ड समारोह में निरपेक्ष मान्यता मिली है | यही भारतीय सिनेमा के शताब्दी सफर का सार्थक सोपान भी है और आने वाले बेहतरीन समय का संकेत भी..!  

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