‘कलंक’ लगाना आसान, धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन / 21 अप्रैल 2019


सिने विमर्श 

‘कलंक’ लगाना आसान, धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन 
  
·  विनोद नागर (फिल्म समीक्षक)


कलंक का अभिप्राय उस कालिख से है जिसे लगाना आसान; धोना मुश्किल और झेलना सबसे कठिन होता है. कमोबेश यही हाल इस सप्ताह प्रदर्शित ‘कलंक’ का रहा. निर्माता करण जौहर के लिये भले ही इसे बनाना आसान और अभिषेक वर्मन के लिये निर्देशित करना कठिन रहा हो मगर दर्शकों के लिये इस ‘कलंक’ को झेलना किसी त्रासदी से कम नहीं. चटख लाल रंग के कैनवास पर डेढ़ अरब रु. की लागत से इस फिल्म को जिस भव्य तरीके से संजय लीला भंसाली की शैली में फिल्माया गया उसके उत्तेजक प्रचार से दर्शक पहले ही बौराए हुए थे. कहा गया कि बीस करोड़ रु. तो फिल्मसिटी में सेट्स बनाने में ही खर्च हो गए. 

लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों से बढ़े राजनैतिक तापमान के बीच करण जौहर ने बड़ी चतुराई से अपनी फिल्म शुक्रवार के बजाय बुधवार को ही चार हजार स्क्रीन पर रिलीज़ करने का व्यावसायिक हथकंडा अपनाया ताकि सप्ताहांत के साथ पड़ने वाली दो छुट्टियों का लाभ मिल सके. लेकिन ‘कुछ कुछ होता है’, ‘कभी ख़ुशी कभी गम’ और ‘कल हो न हो’ के अहसास और आत्म विश्वास के साथ सितारों से कॉफ़ी पर बिंदास सवाल जवाब करने वाले इस वाकपटु अलबेले को यह समझना होगा कि सिर्फ सितारों की भीड़ से दर्शकों को भरमाने के दिन लद चुके हैं.
जाहिर है कहानी में कशिश के अभाव में अब सिर्फ महंगे सेट्स, कॉस्टयूम और भव्य फिल्मांकन से पीरियड ड्रामा फिल्म नहीं चलती. इधर ‘कलंक’ को मल्टी स्टार मूवी के बतौर प्रचारित किया गया जबकि अलिया भट्ट और वरुण धवन के अलावा बाकी कलाकारों सोनाक्षी सिन्हा और आदित्य रॉय कपूर की सितारा हैसियत सर्वज्ञ है. 50 पार की माधुरी दीक्षित और 60 के होने आये संजय दत्त की चमक चरित्र भूमिकाओं में भी फीकी पड़ चुकी है. ऐसे में 90 के दशक में लोकप्रिय रही जोड़ी की 22 साल बाद वापसी का शिगूफा हास्यास्पद है.
ज्ञातव्य है कि इस फिल्म को बनाने विचार करीब डेढ़ दशक पहले यशस्वी फिल्मकार यश जौहर ने अपने होनहार पुत्र करण जौहर के साथ मिलकर किया था. भले ही पिता के जीवित रहते यह फिल्म बनी नहीं, पर समर्पित पुत्र ने 15 साल बाद उस अधूरे ख्वाब की तामील की है. बताया जाता है कि बहार बेगम के किरदार के लिये प्रारंभ में श्रीदेवी को अनुबंधित भी किया जा चुका था. श्री के दिवंगत होने पर अंततः यह चुनौतीपूर्ण भूमिका माधुरी दीक्षित की झोली में आई, पर नाचने गाने वाली तवायफ़ के किरदार को निभाते हुए वे पाकीज़ा के नजदीक भी नहीं पहुँच पाईं.
फिल्म की कहानी 1945 में हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे की त्रासदी वाले कालखंड में बुनी गई है. लाहौर के पास हुस्नाबाद के प्रतिष्ठित चौधरी परिवार की बहू सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) को जब यह पता चलता है कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारी के चलते अब उसका अंतिम समय निकट आ चुका है तो वह जीते जी अपने पति देव (आदित्य रॉय कपूर) से दूसरी शादी के लिये रूप (आलिया भट्ट) को तैयार कर लेती है. रसूखदार ससुर और प्रकाशन समूह व अखबार के मालिक बलराज चौधरी (संजय दत्त) अपने संपादक बेटे देव की रूप से दूसरी शादी कर देते हैं. शादी के बाद रूप गाना सीखने का शौक पूरा करने के लिये हीरामंडी की मशहूर तवायफ बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) के पास जाने की जिद पकड़ लेती है. मज़बूरी में सत्या उसे वहां जाने की इजाजत दे देती है.
इधर अब्दुल (कुणाल खेमू) के लुहारी कारखाने में काम करने वाला ज़फर (वरुण धवन) नाजायज़ औलाद के कलंक को झेलते हुए खुद को रोज़ नफरत की आग में ख़ुशी ख़ुशी जलाता है. संयोग से ज़फर की मुलाकात शादीशुदा रूप से होते ही उसका दिल आशना हो जाता है. कहानी में उस वक़्त चौंकाने वाला मोड़ आता है जब खुलासा होता है कि ज़फर दरअसल बहार बेगम और बलराज चौधरी की अवैध संतान है. यह जानने के बाद कि जिस रूप को वह अपना दिल दे बैठा है वह उसके नाजायज़ बाप की बहू है तो वह खुद को बदले की आग में झोंकने से रोक नहीं पाता.
दरअसल फिल्म का यह अटपटा कथानक दर्शकों के गले नहीं उतरता है. शिबानी भटीजा की कहानी को चुस्त पटकथा में बदलने में अभिषेक वर्मन नाकाम रहे हैं. ऊपर से अभिषेक के अधकचरे निर्देशन ने पूरी फिल्म का भट्टा बैठा दिया. फिल्म का भव्य फिल्मांकन और आलीशान सेट्स ही दर्शकों को थोड़ी बहुत राहत देते हैं. अभिनय की दृष्टि से पूरी फिल्म में सिर्फ आलिया भट्ट और वरुण धवन ही अपने किरदारों को भलीभांति आत्मसात कर पाए हैं. एक ओर जहाँ वरुण ने नाज़ायज औलाद के विद्रोह को उभारने का भरसक प्रयास किया है वहीं आलिया ने ‘रूप’ की दृढ़ता को ‘राज़ी’ से इतर आयाम देने की कोशिश की है. लेकिन  माधुरी दीक्षित और संजय दत्त के बुझे हुए चेहरे व फीकी अदाकारी निराश करती है. सोनाक्षी सिन्हा, आदित्य रॉय चौधरी, कुणाल खेमू का काम औसत दर्जे का है.
बिनोद प्रधान का फिल्मांकन उम्दा है पर श्वेता वेंकट मैथ्यू फिल्म की ढंग से एडिटिंग करती तो फिल्म की दुर्गति होने से बच जाती. अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गीतों को प्रीतम के संगीत ने बखूबी संवारा है. टाइटल सांग कलंक के अलावा घर मोरे परदेसिया और फर्स्ट क्लास गीत मजेदार बन पड़े हैं. सैयाँ मेरा ऐरा गैरा का फूहड़ फिल्मांकन पाकीज़ा के सलीकेदार गीतों के आगे पानी भरता नज़र आता है. निर्देशकीय चूक का आलम यह है कि कुछ दृश्य बिना किसी तार्किकता के ग्रामीण परिवेश से सीधे बर्फीले पहाड़ों में पहुँच जाते हैं.
इन्दौर के लालबाग पैलेस, महेश्वर के घाट और ग्वालियर के किले पर फिल्माए गए दृश्य भी आशातीत प्रभाव नहीं छोड़ते. लुहारी कारखाने और बहार बेगम के कोठे के दृश्य देखने लायक हैं. पर बुल फाइट के सीन और अखबार के दफ्तर का सेटअप बनावटी लगता है. बंटवारे की मारकाट के बीच रेलवे स्टेशन पर फिल्म का क्लाइमेक्स जरुरत से ज्यादा लम्बा खिंच जाने के चलते बोझिल हो गया है. नदी किनारे देव और ज़फर की मुलाकात रोचक है जबकि बलराज और बहार बेगम का आमना सामना भी असरदार होना था.    
हुसैन दलाल के संवादों में दम नहीं है - उम्मीद सिर्फ इंतज़ार कराती है, तकदीर नहीं बदल सकती.. जब आप ही नहीं रहेंगी तो आपका वादा निभाएगा कौन.. तवायफ़ को ताजमहल कह देने से उसकी किस्मत नहीं बदल जाएगी.. होश ओ हवास में की गयी गलती, गलती नहीं बेईमानी होती है.. आपका घमंड आपकी गलतियों से भी बड़ा था.. एक बार हमने अपना मुल्क बना लिया तो आपकी चीखें सुनेगा कौन.. कुछ रिश्ते कर्जों की तरह होते हैं जिन्हें निभाना नहीं चुकाना पड़ता है.. ये सुकून के आँसू है, बह जाने दीजिये.. बस अपनी टूटी किस्मत के टुकड़े समेत के आगे निकल जाना चाहता हूँ.. रूप आप उसकी मोहब्बत नहीं इंतकाम हैं.. नाजायज़ मोहब्बत का अंजाम अक्सर तबाही होता है..      
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